विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस 10.10.2021

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विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस 10.10.2021


पोस्ट कोविड काल में मानसिक स्वास्थ्य: वे सबक़ जो हम सीखना नहीं चाहते

10 अक्टूबर को हम विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस मनाएँगे,आइए इस अवसर पर बात करें उन घावों की, जो कोविड सदैव के लिए अंकित कर गया है,जिनमें से एक है लोगों का मानसिक स्वास्थ्य। कोविड-19 महामारी ने प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर असंख्य लोगों के जीवन को प्रभावित किया है। हज़ारों लोग इस महामारी के चलते आई भयंकर मुसीबतों के शिकार हुए हैं। इनमें स्वास्थ्य सुविधाओं से जुड़े बुनियादी ढांचे का अभाव, आर्थिक सुस्ती, प्रवासी संकट, घरेलू हिंसा, मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याएं आदि शामिल हैं। बहरहाल, महामारी के इस दौर में जिस एक मुद्दे पर अपेक्षाकृत काफ़ी कम चर्चा हुई है,वह है लोगों का गिरता मानसिक स्वास्थ्य।

स्वास्थ्य से जुड़ी व्यवस्थाओं में आई रुकावटों से आपूर्ति श्रृंखला को नुकसान पहुंचा। नतीजतन एक के बाद एक कई देशों को संपूर्ण तालाबंदी की अवस्था में जाना पड़ा। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) द्वारा 130 देशों में किए गए सर्वेक्षण में पाया गया कि 93 प्रतिशत देशों को मानसिक स्वास्थ्य, स्नायुतंत्रीय और मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी सेवाओं की आपूर्ति में गंभीर रुकावटों का सामना करना पड़ा। इन देशों में ऐसी सेवाओं की आपूर्ति में बढ़ोतरी की पूरी शिद्दत से ज़रूरत महसूस की गई।

पारंपरिक तौर पर मानवीय आबादी के एक बड़े हिस्से में अवसादजनक अवस्था के प्रसार के पीछे कई कारण रहे हैं। इनमें संक्रमित होने और मृत्यु का डर, किसी क़रीबी की मौत, एकाकीपन, नशीले पदार्थों के सेवन की आदत को छोड़ते वक़्त होने वाली परेशानियां, हिंसा, पुरानी और असाध्य बीमारियां आदि कारण शामिल रहे हैं। बहरहाल, मौजूदा डिजिटल युग में मनोवैज्ञानिक तनाव के कई अन्य कारक भी पैदा हो गए हैं। इनमें सोशल मीडिया का दबाव, डिजिटल तकनीकी कौशल का अभाव, प्रवासी जीवन से जुड़ा तनाव, वित्तीय असुरक्षा, डिजिटल साधनों तक पहुंच होना और क़रीबी रिश्ते-नातों और संबंधों से अलगाव जैसे कारक शामिल हैं।

इस विषाणु-जनित महामारी की शुरुआत से ही ऐसे अनेक वैज्ञानिक साक्ष्य देखने को मिले हैं जिनसे पता चलता है कि मानवीय आबादी के संपूर्ण स्वास्थ्य पर इसका कैसा कुप्रभाव पड़ा है।इसकी मुख्य वजहों में एकाकीपन और कोरोना पॉजिटिव आने का डर शामिल है। इसके अलावा नशीले पदार्थों के सेवन की आदत से छुटकारा पाने में होने वाली परेशानियां, ख़ासकर शराब की दुकानों के अचानक बंद हो जाने के बाद शराब मिलने से नशे की लत झेल रहे लोगों की मौत भी इसी श्रेणी में आती है। इसके साथ ही बेहद थकावट, भूख और वित्तीय परेशानियों के चलते हुई मृत्यु भी इनमें शामिल हैं। लोगों ने चिंता, एकाकीपन, घबराहट और अवसाद जैसी परेशानियों की शिकायत की। जबकि बाक़ी लोगों ने अनियमित नींद और पहले से चली रही मानसिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के और विकराल रूप ले लेने की बात कही।

मौजूदा डिजिटल युग में मनोवैज्ञानिक तनाव के कई अन्य कारक भी पैदा हो गए हैं। इनमें सोशल मीडिया का दबाव, डिजिटल तकनीकी कौशल का अभाव, प्रवासी जीवन से जुड़ा तनाव, वित्तीय असुरक्षा, डिजिटल साधनों तक पहुंच होना और क़रीबी रिश्ते-नातों और संबंधों से अलगाव जैसे कारक शामिल हैं।

इतना ही नहीं, लगातार सदमा, शोक और परेशान करने वाले हालातों से दो-चार होने वाले फ़्रंटलाइन स्वास्थ्यकर्मियों और कानून का पालन सुनिश्चित कराने वाली एजेंसियों से जुड़े लोगों के संदर्भ में भी चिंताजनक प्रवृत्ति देखी गई। उनमें पोस्ट-ट्रॉमैटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर (पीटीएसडी), एकाकीपन, ऑब्सेसिव कंपल्सिव डिसऑर्डर (ओसीडी), क्रोध से जुड़े मामले, आत्महत्या की प्रवृति आदि लक्षण पाए गए। शुरुआती दौर में कही-सुनी बातों के आधार पर जो साक्ष्य देखने को मिले उनसे पता चलता है कि ख़ुद के या किसी क़रीबी के कोरोना पॉजिटिव पाए जाने के बाद अवसाद के मामलों में 70 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई। इन लोगों में अपनी ज़िंदगी ख़त्म करने की एक मज़बूत प्रवृत्ति भी देखी गई। पारंपरिक तौर पर संकट के समय लोगों को मानवीय स्पर्श और सामाजिकता के ज़रिए नियमित रूप से जो मरहम पट्टी या सहानुभूतिपूर्ण माहौल मिला करता था, वह इस महामारी के दौर में पूरी तरह से नदारद रहा। ऐसे में लोगों के मन-मस्तिष्क में ऐसी विनाशकारी भावनाएं छाने लगीं। पहले से ही समाज के जो तबके अतिसंवेदनशील या असुरक्षित रहे हैं, उनमें ये ख़तरे साफ़ तौर पर ज़्यादा देखने को मिले हैं। इनमें महिलाएं, छोटे बच्चे, कलहपूर्ण हालातों का सामना करने वाले लोग, जाति और वर्ग के हिसाब से अल्पसंख्यक समाज के लोग,हाशिए पर  रहने को मजबूर लोग आदि शामिल हैं। इंसानी समाज में भौतिक रूप से होने वाले संवादों के अचानक बंद हो जाने से मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी सेवाओं और इन समस्याओं से उबरने वाले तंत्र तक पहुंच पाना और कठिन हो गया। पहले ही हमारे देश में इन सेवाओं तक लोगों की पहुंच मुश्किल से होती रही है और इसमें भारी विषमता व्याप्त है।

घरेलू हिंसा, यौन उत्पीड़न, घरेलू कार्यों और देखभाल करने से जुड़ी ज़िम्मेदारियों के बढ़ जाने, बच्चों के पालन-पोषण और वित्तीय मोर्चे पर असुरक्षा की भावनाओं में चिंताजनक बढ़ोतरी ने तनाव और अवसाद को कई गुणा बढ़ा दिया है। सर्वेक्षणों में दावा किया गया है कि वैश्विक स्तर पर इस आयु वर्ग का हर दूसरा व्यक्ति विषादग्रस्त है। टालमटोल करने, तनाव, रोज़गार से जुड़ी असुरक्षा, घर से काम करने, डिजिटल माध्यमों के बेतहाशा इस्तेमाल से होने वाली थकान और डिजिटल जुड़ाव का अभाव जैसे दीर्घकालिक कारक युवाओं को बुरी तरह से प्रभावित कर रहे हैं।

वे सबक जो हम नहीं सीख रहे हैं

भारत पिछले कई वर्षों से दुनिया के सबसे अवसादग्रस्त देशों में से एक बना हुआ है। इस समस्या से जूझ रहे लोगों के लिए पर्याप्त मदद के अभाव में लोग इससे उबरने के लिए घातक तरीकों का सहारा लेने लगते हैं। इनमें नशीले पदार्थों या दवाइयों का दुरुपयोग, नशे की लत और हिंसा जैसी बुराइयों का प्रसार होता है। मानसिक स्वास्थ्य की लगातार जारी अनदेखी के पीछे इसे लांछन की तरह समझने की प्रवृति और इसके बारे में लोगों के बीच जागरूकता का अभाव है।

इतना ही नहीं मानसिक विकारों के लिए परामर्श और बचाव की दूसरी सहायक सेवाएं लांछित समझी जाने वाली संस्थाओं जैसे मनोचिकिसा अस्पतालों में ही उपलब्ध हो पाती हैं। समाज में ऐसे अस्पतालों और केंद्रों को लेकर जो हिकारत का भाव है| उसके चलते कई लोग इन सेवाओं तक पहुंच ही नहीं पाते। दुर्भाग्यवश मरीज़ों की निजता भंग होने की घटनाएं भी अक्सर देखने को मिलती हैं। इसके अलावा इस कानून में मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी समस्याओं से पीड़ित लोगों के साथ किसी भी तरह का भेदभाव किए बिना समानता के बर्ताव की बात कही गई है। बहरहाल जागरूकता और व्यवस्था पर भरोसा बनाए बिना मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से जुड़े लांछनों और उनके शिकार लोगों के साथ शत्रुतापूर्ण रवैया अपनाने की प्रवृत्ति बढ़ती ही जा रही है। स्वास्थ्य बीमा प्रदाता कंपनियां मानसिक स्वास्थ्य और स्नायु तंत्र से जुड़े विकारों से जुड़ी मेडिकल सेवाओं पर किसी भी प्रकार का दावा देने से अब भी इनकार करती हैं। ऐसे में मानसिक विकार काफ़ी महंगी सेवाओं की श्रेणी में जाते हैं।

देश में मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े केवल दो बड़े संस्थानों- राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य और स्नायु विज्ञान संस्थान (एनआईएमएचएनएस), बेंगलुरु और लोकप्रिय गोपीनाथ क्षेत्रीय मानसिक स्वास्थ्य संस्थान, तेज़पुर को मानसिक स्वास्थ्य से संबंधित कुल कोष का 93 प्रतिशत हिस्सा आवंटित किया गया है।

ये बात सही है कि मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े इन कार्यक्रमों के लिए हमेशा से ही काफ़ी कम धनराशि आवंटित की जाती रही है। बहरहाल, मौजूदा समय में महामारी से पैदा हुई परिस्थितियों की पहचान कर उनसे निपटने के लिए कॉरपोरेट क्षेत्र, परोपकार के काम से जुड़े संगठनों और प्राथमिक तौर पर सरकारों को आगे आकर साझा तौर पर काम करना होगा।

भारत  कोविड-19 जैसी विकराल आपदा का सामना करने के लिए कतई तैयार नहीं था मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी किसी महामारी से निपटने की हमारी तैयारी तो और भी लचर रही है। दुनिया भर में लंबे समय से व्याप्त इस ख़ामोश महामारी से निपटने के लिए लक्षित, बहुपक्षीय प्रयासों के साथ-साथ इससे जुड़े सभी संबद्ध पक्षों द्वारा पर्याप्त निवेश किए जाने की सख्त आवश्यकता है। वैसे इस वर्ष मानसिक स्वास्थ्य के विषय पर जानकारियां जुटाने और इसके बारे में पूछताछ करने की प्रवृति में तेज़ बढ़ोतरी दर्ज की गई। ज़ाहिर तौर पर अनिश्चितता भरे इस दौर में लोग स्वयं-सहायता और भावनाओं पर नियंत्रण पाने के तरीके की तलाश में हैं और आशा है हमारा भविष्य में समाज के ऐसे लोगों से बना होगा जो शारीरिक और मानसिक दोनों ही ढंग से स्वस्थ होंगे |

जय हिंद ! जय भारत !


मीता गुप्ता

 


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